Wednesday, December 22, 2010

दर्द

अरे मानव हम बेजुबानो को भी जीने दो,
हमें हमारे ही जंगल में रहने दो,
तुम जंगल में आकर धाक जमाते हो,
यदि हम गलती से आबादी में आ गए,
तो शोर मचाते हो,
यहाँ तक क़ि हमें मारने और पकड़ने की मांग उठाते हो,
हमारे साथ अरे मानव यह कैसा इन्साफ है,
हमारा गलती से आबादी में आना भी मना है,
और तुम्हारा जंगल में आना साफ़ है,
यह कैसा जंगल राज है,
अरे मानव हमें भी जीने का हक़ दे दो,
स्वच्छंद घूमने का स्थल दे दो........
पर्यटन के नाम पर वैसे ही,
जीना हमारा बेहाल है,
ऊपर से शिकारी घूमते बनकर हमारा काल हैं.
इससे बुरी हालत हमारी क्या होगी,
क़ि कल तक घूमते थे हम स्वच्छंद,
आज झाड़ियों में कैद हैं,
पर्यटक आबादी से आकर,
हमारे जीवन में खलल डाल रहे हैं.
पर्यटन के नाम पर यह कैसा रोजगार पाल रहे हैं.
असंतुलित पर्यटन की बात भी कहते हैं,
 पर्यटन को बढ़ावा भी देते हैं, और
करोड़ों रुपये का राजस्व हमारे नाम से लेते हैं,
होटल व दीवार बनाकर कोसी से हमारा नाता तोड़ दिया,
प्यासे हमें मरने के लिए छोड़ दिया,
होटलों में रात को डी जे का शोर मचाते हो,
दिन में तो आवाजाही से सोने नहीं देते,
रात को भी हमारे कान खाते हो.
हमें तो सुख-दुःख का अहसास है,
तुम्हारे लिए पैसा ही खास है,
पैसे के दम पर केवल मौज-मस्ती करने आते हैं
असल वन्यजीव प्रेमियों को ही हम लोग भाते हैं.
हमारे संरक्षण में कुछ लोगों का ही ध्यान है,
ऐसे वन्यजीव प्रेमी हमारे लिए महान हैं-महान हैं.
लेखक त्रिलोक रावत, युवा पत्रकार हैं.


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