Wednesday, December 15, 2010

खतरा: कॉर्बेट पार्क में बोले मोबाइल

      दूरसंचार क्रांति के इस युग में मोबाइल काफी उपयोगी यन्त्र साबित हुआ है. कल्पना कीजिये क़ि आप १-२ घंटों के लिए मोबाइल नेटवर्क से दूर हो गए तो लगेगा क़ि आप दुनिया के सारे सम्पर्को से कट गये हैं और आप खुद को असहाय महसूस करने लगेंगे. लेकिन बहुत बार ऐसा भी होता है क़ि आप इस यंत्र से कुछ देर के लिए छुटकारा पाना चाहते हैं. इसके लिए आप जंगल की ओर रूख करते हैं.  दूरसंचार क्रांति के इस दौर में मोबाइल की कनेक्टिविटी जंगलों में भी पर्याप्त रूप से मिल रही है. और इसके कई लाभ भी हमने रामनगर के आस-पास देखे हैं. जब जंगल गयी महिलाओं और बच्चों ने संकट में पड़ने पर इस दूरभाष यन्त्र का उपयोग कर संकट से मुक्ति पायी है. यह तो उन जंगलों की बात है जो जनता के लिए खुले हैं और वह वहां बिना किसी रोक-टोक के आ-जा सकते हैं. लेकिन यदि बात राष्ट्रीय उद्यानों की जाए और वहां पर भी मोबाइल की कनेक्टिविटी बहुत स्थानों पर हो तो यह खतरनाक साबित हो सकता है.
    
     बात कॉर्बेट नॅशनल पार्क की हो रही है, जहाँ इन दिनों मोबाइल फ़ोनों की कनेक्टिविटी कई स्थानों पर मिल रही है. पार्क में अनेक स्थानों पर मोबाइल सिग्नल मिल रहे हैं. जो पर्यावरण और वन्यजीवों की सुरक्षा की दृष्टि से उचित नहीं है. कॉर्बेट नॅशनल पार्क बाघों के सुरक्षित गढ़ के रूप में जाना जाता रहा है, जहाँ बंगाल रोयल टाईगर अपने प्राकृतिक आवास में फल-फूल रहा है. लेकिन वहां मोबाइल के सिग्नलों ने वन्यजीव प्रेमियों को चिंता में डाल दिया है. कॉर्बेट टाईगर रिजर्व की सीमा के  चारों ओर आबादी वाले क्षेत्र हैं. यहाँ कई मोबाइल कम्पनियों ने अपने-अपने टावर लगा रखे हैं. मै यह नहीं कहता क़ि टावर नहीं लगाये जाने चाहिए, क्योंकि दूरसंचार के इस दौर में ग्रामीणों को भी इस सुविधा से जोड़ा ही जाना चाहिए. लेकिन मोबाइल कंपनियों को इसकी फ्रीक्वेंसी का ध्यान रखना चाहिए. आज देखने में आ रहा है क़ि राष्ट्रीय उद्यान में कई जगह मोबाइल रेंज मिल रही है. अगर हम संरक्षण की बात करते हैं तो हमें यह सोचना होगा क़ि इसके कितने गंभीर परिणाम हो सकते हैं. इससे जहाँ बाघों के सुरक्षित आवास में सेंध लग सकती है वहीँ इससे होने वाले रेडिऐशन से वन्य जीव निश्चित रूप से प्रभावित होंगे. पार्क में वन्यजीवों का ध्यान रखते हुए होर्न बजाना और शोर करना प्रतिबंधित है, वहीँ मोबाइल की बजने वाली घंटी की ओर किसी का ध्यान नहीं है. जिसका शोर शांत जंगल में खलबली मचाने को काफी है. यह सारे सवाल ऐसे हैं जिस ओर पार्क प्रशासन को ध्यान देना होगा. कहीं ऐसा ना हो क़ि मानव की संचार क्रांति राष्ट्रीय उद्यानों के इन बेजुबानो को भारी पड़ जाएँ. और जब तक हम जागे तब तक देर हो जाए.
                                लेखक ललित मोहन बिष्ट "रिम्पी" वन्य जीव प्रेमी हैं 

1 comment: