Friday, August 27, 2010

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कौन है गिद्धों के  खात्मे के लिए  जिम्मेदार ? निश्चित रूप से मानव की गलतियाँ ही इनकी खात्मे का कारण बनी है. देखा जा रहा है क़ि मुर्दाखोरो की अनुपस्थिति में जानवरों की लाशों को खा रहे कुत्ते बहुत हमलावर व खतरनाक होते जा रहे हैं. मवाशियों के शव को खा रहे यह कुत्ते बाद में आबादी का रुख कर रहे हैं. जिससे रेबीज जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ता जा रहा है. विशेषज्ञों ने ९० की दशक की शुरुआत में देखा की इनकी मौतों का ग्राफ बढ़ता जा रहा है.  ऐसे में बॉम्बे नेचुअल हिस्टरी सोसायटी हरकत में आ गया. और उसने इसकी बढ़ रही मौत पर गहरी चिंता जताई. जिस पर दुनिया भर के वैज्ञानिक इसकी मौत के रहस्य को जानने में लग गए. तब पाकिस्तान के वैज्ञानिको ने इसके खामोश कातिल की पहचान कर ली. यह एक दवा का प्रभाव था. जिसके कारण इसकी मौत हो रही थी. यह मवाशियों को दी जाने वाली दवा डायक्लोफिनेक के कारण मर रहे थे. इस बात का पाता लगाते-लगाते एक दशक का समय बीत गया. इस दवा का प्रयोग मानव व पशु दोनों के लिए किया जाता है. यह अपने कम दाम और आसानी से उपलब्धता के चलते बाजार में छा गयी. इस दवा का प्रयोग कर रहे जानवर की मौत हो जाने पर उसे खाने वाले गिद्ध के शरीर में भी इस दवा का असर हो जाता है. गिद्ध का शरीर इस रसायन को पचा नहीं पाता और उसके शरीर में यूरिक एसीड जमा हो जाता है. जिससे इनकी किडनी और लीवर ख़राब हो जाते हैं. साथ ही इनके शरीर में पानी की कमी हो जाती है. और यह अपना दम तोड़ देते हैं. हालात वाकई गंभीर है. एशियन वल्चर जिस रफ़्तार से कम हुए हैं इस रफ़्तार से कोई भी वन्य पक्षी  कम नहीं हुआ है. यह रफ़्तार तो डोड़ो के गायब होने की रफ़्तार से भी तेज़ है. जो आखिरकार विलुप्त ही हो गया था. इस दवा से गिद्धों की तीन प्रजातियों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है. ओरिंटल व्हाईट बेक्ड, लॉन्ग बिल्ड और सिलंडर बिल्ड वल्चर तो इस दवा के चलते अब अंतिम सांसे ही गिन रहा है. भारत, नेपाल और पाकिस्तान के ९९ प्रतिशत से ज्यादा गिद्ध पहले ही मर चुके हैं. गिद्धों की कम होती तादाद के चलते आई य़ू सी एन गिद्धों की तीन प्रजातियों को गंभीर रूप से विलोपन के खतरे की श्रेणी में रख दिया. सन २००२ में इन्हें भारतीय वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत अनुसूची एक में रखा गया. जिससे गिद्धों को भी बाघ और गैंडे वाले दर्ज़ा मिल गया. भारत सरकार ने इस सिलसिले में तुरंत कार्यवाही की. १७ मार्च २००५ को प्रधानमंत्री ने एक निर्देश जारी किया क़ि ६ महीने के भीतर डायक्लोफिनेक को जानवरों के इलाज में इस्तेमाल किया जाना बंद कर दिया जाये. इसके बाद ११ मई २००६ को भारत के ड्रग कंट्रोलर जनरल ने सभी राज्यों के ड्रग कंट्रोलर को एक अधिसूचना जारी करके तीन माह के भीतर डायक्लोफिनेक को हटाने के निर्देश दिए थे. १९ जून २००६ को प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में नेशनल बोर्ड ऑफ़ वायल्डलाइफ की बैठक हुयी जिसमे डायक्लोफिनेक को बंद कर इसके वैकल्पिक दवा को बढ़ावा देने के कार्यों में कुछ तेज़ी जरूर आई.

   लेकिन वन्यजीव प्रेमी अभी भी खुश नहीं हैं. और इसका कारण भी तर्कसंगत है. वन्यजीव प्रेमियों का कहना है क़ि मवेशी को दी जाने वाली डायक्लोफिनेक दवा भले ही सरकारी प्रयासों से बंद हो गयी हो परन्तु अभी भी इंसान को दी जाने वाली डायक्लोफिनेक दवा बाज़ार में मौजूद है. जिसका उपयोग धडल्ले से जानवरों में किया जा रहा है. उनकी मांग है क़ि इस दवा को देश में पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. यदि यह सम्भव ना हो तो भी इंसान को दी जाने वाली इस दवा की पेकिंग को छोटा किया जाना चाहिए. जबकि बाज़ार में इन्सान को दी जाने वाली डायक्लोफिनेक दवा बहुत बड़े पैक में बाज़ार में उपलब्ध हो रही है. जिसका इस्तेमाल जानवरों में आसानी से किया जा रहा है. कभी साढ़े तीन करोड़ की तादाद में पाए जाने वाले गिद्ध आज चार हज़ार की संख्या में आ कर सिमट गए हैं. इन्हें बचाने में पशु चिकित्सक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. साथ ही आम जनता को भी इस ओर जागरूक करना पड़ेगा तभी हम आसमाँ के इन बादशाहों को असमान पर देख पाएंगे. नहीं तो हमारी गलतियों से यह मुर्दाखोर भी डोड़ो की तरह ही हमेशा के लिए किताबों में सिमट कर रह जायेगा.

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